23-12-85  ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन

कामजीत - सर्व हद की कामनाओं से परे

दु:खहर्त्ता, सुखकर्त्ता शिवबाबा बोले

बापदादा अपने छोटे से श्रेष्ठ सुखी संसार को देख रहे हैं। एक तरफ है बहुत बड़ा असार संसार। दूसरे तरफ है छोटा-सा सुखी संसार। इस सुखी संसार में सदा सुख-शान्ति सम्पन्न ब्राह्मण आत्मायें हैं। क्योंकि पवित्रता, स्वच्छता के आधार पर यह सुख-शान्तिमय जीवन है। जहाँ पवित्रता वा स्वच्छता है वहाँ कोई भी दु:ख अशान्ति का नाम निशान नहीं। पवित्रता के किले के अन्दर यह छोटासा सुखी संसार है। अगर पवित्रता के किले के, संकल्प द्वारा भी बाहर जाते हो तब दु:ख और अशान्ति का प्रभाव अनुभव करते हो। यह बुद्धि रूपी पाँव किले के अन्दर रहें तो संकल्प तो क्या स्वप्न में भी दु:ख अशान्ति की लहर नहीं आ सकती है। दु:ख और अशान्ति का जरा भी अनुभव होता है तो अवश्य कोई न कोई अपवित्रता का प्रभाव है। पवित्रता, सिर्फ कामजीत जगतजीत बनना यह नहीं है। लेकिन काम विकार का वंश, सर्व हद की कामनायें हैं। कामजीत अर्थात् सर्व कामनायें जीत। क्योंकि कामनायें अनेक विस्तार पूर्वक हैं। कामना एक है - वस्तुओं की, दूसरी - व्यक्ति द्वारा हद के प्राप्ति की कामना है, तीसरी - सम्बन्ध निभाने में भी हद की कामनायें अनेक प्रकार की उत्पन्न होती हैं, चौथी - सेवा भावना में भी हद की कामना का भाव उत्पन्न हो जाता है। इन चार ही प्रकार की कामनाओं को समाप्त करना अर्थात् सदा के लिए दु:ख अशान्ति को जीतना। अब अपने आप से पूछो इन चार ही प्रकार की कामनाओं को समाप्त किया है? कोई भी विनाशी वस्तु अगर बुद्धि को अपनी तरफ आकर्षित करती है तो जरूर कामना का रूप ‘लगाव’ हुआ। रॉयल रूप में शब्द को परिवर्तन करके कहते हो - इच्छा नहीं है लेकिन अच्छा लगता है। चाहे वस्तु हो वा व्यक्ति हो लेकिन किसी के प्रति भी विशेष आकर्षण है, वो ही वस्तु वा व्यक्ति ही अच्छा लगता है अर्थात् कामना है। इच्छा है। सब अच्छा लगता है - यह है ‘यथार्थ’। लेकिन यही अच्छा लगता है - यह है ‘अयथार्थ’।

यह इच्छा का रॉयल रूप है। चाहे किसकी सेवा अच्छी लगती, किसकी पालना अच्छी लगती, किसके गुण अच्छे लगते, किसकी मेहनत अच्छी लगती, किसका त्याग अच्छा लगता, किसका स्वभाव अच्छा लगता लेकिन अच्छाई की खुशबू लेना वा अच्छाई को स्वयं भी धारण करना अलग बात है। लेकिन इस अच्छाई के कारण यही अच्छी है - यह अच्छा कहना इच्छा में बदल जाता है। यह कामना है। जो दु:ख और अशान्ति का सामाना नहीं कर सकते। एक है - अच्छाई के पीछे अपने को अच्छा बनने से वंचित करना। दूसरी - दुश्मनी की कामना भी नीचे ले आती है। एक है प्रभावित की कामना। दूसरी है किसी से वैर व ईर्ष्या की भावना की कामना। वह भी सुख और शान्ति को समाप्त कर देती है। सदा ही मन हलचल में आ जाता है। प्रभावित होने के लक्षण - लगाव और झुकाव है। ऐसे ईर्ष्या वा दुश्मनी का भाव उसकी निशानी है - जिद्द करना और सिद्ध करना। दोनों ही भाव में कितनी एनर्जी, कितना समय खत्म कर देते हैं। यह मालूम नहीं पड़ता है। दोनों ही बहुत नुकसान देने वाले हैं। स्वयं भी परेशान और दूसरों को भी परेशान करने वाले हैं। ऐसी स्थिति के समय ऐसी आत्माओं का यही नारा होता है - दु:ख लेना और दु:ख देना ही है। कुछ भी हो जाए - लेकिन करना ही है। यह कामना उस समय बोलती है। ब्राह्मण आत्मा नहीं बोलती। इसलिए क्या होता है - सुख और शान्ति के संसार से बुद्धि रूपी पाँव बाहर निकल जाता है। इसलिए इन रॉयल कामनाओं के ऊपर भी विजयी बनो। इन इच्छाओं से भी ‘इच्छा-मात्रम्-अविद्या’ की स्थिति में आओ।

यह जो संकल्प करते हो, दोनों ही भाव में कि मैं यह बात करके दिखाऊँगा, किसको दिखायेंगे? बाप को वा ब्राह्मण परिवार को? किसको दिखायेंगे? ऐसे समझो यह करके दिखायेंगे नहीं, लेकिन गिर के दिखायेंगे। यह कमाल है क्या, जो दिखायेंगे। गिरना देखने की बात है क्या! यह हद के प्राप्ति का नशा - मैं सेवा करके दिखाऊँगा, मैं नाम बाला करके दिखाऊँगा, यह शब्द चेक करो, रॉयल है? कहते हो शेर की भाषा लेकिन बनते हो बकरी। जैसे आजकल कोई शेर का, कोई हाथी का, कोई रावण का, कोई राम का फेस डाल देते हैं ना। तो यह माया शेर का फेस लगा देती है। मैं यह करके दिखाऊँगा, यह करूँगा, लेकिन माया अपने वश कर बकरी बना देती हैं। मैं-पन आना अर्थात् कोई न कोई हद की कामना के वशीभूत होना। यह भाषा युक्तियुक्त बोलो और भावना भी युक्तियुक्त रखो। यह होशियारी नहीं है लेकिन हर कल्प में - सूर्यवंशी से चन्द्रवंशी बनने की हार खाना है। कल्प-कल्प चन्द्रवंशी बनना ही पड़ेगा। तो यह हार हुई या होशियारी हुई? तो ऐसी होशियारी नहीं दिखाओ। न अभिमान में आओ न अपमान करने में आओ। दोनों ही भावनायें - शुभ भावना - शुभ कामना दूर कर लेती हैं। तो चेक करो - जरा भी संकल्प मात्र भी अभिमान वा अपमान की भावना रह तो नहीं गई है? जहाँ अभिमान और अपमान की भावना है, यह कभी भी स्वमान की स्थिति में स्थित हो नहीं सकता। स्वमान सर्व कामनाओं से किनारा कर देगा। और सदा सुख के संसार में सुख के शान्ति के झूले में झूलते रहेंगे। इसको ही कहा जाता है - सर्व कामना जीत जगतजीत। तो बापदादा देख रहे थे छोटे से सुखी संसार को। सुख के संसार से, अपने स्वदेश से पराये देश में बुद्धि रूपी पाँव द्वारा क्यों चले जाते हो? पर-धर्म, परदेश दु:ख देने वाला है। स्वधर्म, स्वदेश सुख देने वाला है। तो सुख के सागर बाप के बच्चे हो, सुख के संसार के अनुभवी आत्मायें हो। अधिकारी आत्मायें हो तो सदा सुखी रहो, शान्त रहो। समझा-

देश-विदेश के दोनों स्नेही बच्चे अपने घर वा बाप के घर में अपना अधिकार लेने के लिए पहुँच गये हो। तो अधिकारी बच्चों को देख बापदादा भी हर्षित होते हैं। जैसे खुशी में आये हो ऐसे ही सदा खुश रहने की विधि, इन दोनों बातों का संकल्प से भी त्याग कर, सदा के लिए भाग्यवान बन करके जाना। लेने आये हो लेकिन साथ लेने के साथ, मन से कोई भी कमज़ोरी जो उड़ती कला में विघ्न रूप बनती हैं वह छोड़ के जाना। यह छोड़ना ही लेना है। अच्छा-

सदा सुख के संसार में रहने वाले सर्व कामना जीत, सदा सर्व आत्माओं के प्रति शुभ भावना और शुभ कामना करने वाले श्रेष्ठ आत्माओं को, सदा स्वमान की सीट पर स्थित रहने वाली विशेष आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।’’

टीचर्स के साथ - सभी स्वयं को कौन-सी मणि समझते हो? (सन्तुष्टमणि) आज के समय में विशेष सन्तुष्टता की ही आवश्यकता है। पूजा भी ज्यादा किस देवी की होती है? सन्तोषी की। और सन्तोषी को राजी करना ही सहज होता है। संतोषी सन्तुष्ट जल्दी हो जाती है। संतोषी की पूजा क्यों होती है? क्योंकि आज के समय में टेन्शन बहुत है, परेशानियाँ बहुत हैं, इस कारण असन्तुष्टता बढ़ती जा रही है। इसलिए सन्तुष्ट रहने का साधन सभी सोचते हैं। लेकिन कर नहीं सकते। तो ऐसे समय पर आप सभी सन्तुष्टमणियाँ बन सन्तुष्टता की रोशनी दो। अपने सन्तुष्टता की रोशनी से औरों को भी सन्तुष्ट बनाओ। पहले स्वं से स्वयं सन्तुष्ट रहो फिर सेवा में सन्तुष्ट रहो, फिर सम्बन्ध में सन्तुष्ट रहो तब ही सन्तुष्टमणि कहलायेंगे। सन्तुष्टता के भी तीन सर्टिफकेट चाहिए। अपने आप से, सेवा से, फिर साथियों से। यह तीनों सर्टिफकेट लिए हैं ना! अच्छा है, फिर भी दुनिया की हलचल से निकल अचल घर में पहुँच गई। यह बाप के स्थान ‘अचल घर’ हैं। तो अचल घर में पहुँचना यह भी बड़े भाग्य की निशानी है। त्याग किया तो अचलघर पहुँची। भाग्यवान बन गई लेकिन भाग्य की लकीर और भी जितनी लम्बी खींचने चाहो उतनी खींच सकते हो। लिस्ट में तो आ गई - ‘भाग्यवान की’। क्योंकि भगवान की बन गई तो भाग्यवान हो गई। और सबसे किनारा कर एक को अपना बनाया - तो भाग्यवान हो गई। बापदादा बच्चों की इस हिम्मत को देख खुश हैं। कुछ भी हो फिर भी त्याग और सेवा की हिम्मत में श्रेष्ठ हो। छोटे हो या नये हो लेकिन बापदादा त्याग और हिम्मत की मुबारक देते हैं। उसी रिगार्ड से बापदादा देखते हैं। निमित्त बनने का भी महत्व है। इसी महत्व से सदा आगे बढ़ाते हुए विश्व में महान आत्मायें बन प्रसिद्ध हो जायेंगी। तो अपनी महानता को तो जानती हो ना! जितने महान उतने निर्मान। जैसे फलदायक वृक्ष की निशानी है - झुकना। ऐसे जो निर्मान हैं वही प्रत्यक्ष फल खाने वाले हैं। संगमयुग की विशेषता ही यह है। अच्छा-